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This great work has taken form from the dialogue between ShreeGuru Dattatreya and His disciple Shree Parshuram. It is an easy and simple account of the Aadimata Chandika’s Tridha form that is the Aadimata Gayatri, the Aadimata Mahishasurmardini and the Aadimata Anasuya. Describing this memoir, Sadguru Shree Aniruddha writes – “This is a sacred work, this is a gunasankirtan or praise of the attributes, it is the Ganges of knowledge, it is also the Bhagirathi of Bhakti (bhakti that flows from the bhakta back to the source, the Almighty) and, of course, the narrative about the Aadimata. But over and above all of this, it is the Shubhankara and the Ashubhanashini manifestation of my Aadimata; it is Her gentle motherly affection, and it is also Her grace and blessing.”


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यह परमपावन कार्य, जैसे इसका नाम दर्शाता है, माँ चंडिका के वात्सल्य का प्रत्यक्षीकरण है। सगुरु श्री अनिरुद्ध रचित यह कार्य भक्तों को केवल महिषासुरमर्दिनी माता चंडिका के आदर्श, कार्य और भूमिका से ही जोड़ने के लिए नहीं है, बल्कि उसके वात्सल्य से और उसकी हमारी संरक्षा के प्रति तत्परता से हमें अवगत कराना है।
वे चाहते हैं कि हम माता के प्रेम को जानें और उस शक्ति को पहचाने – वह शक्ति जो दुष्टता या बुराई से लड़ने की है, वह शक्ति जो नैतिक गुण और भक्ति के परिणामों से निश्चल आनंद की प्राप्ति कराती है। वह भले ही उग्र दिखती हो, वही सच्ची भक्त की सुरक्षा करती है और दुष्टों का नाश करती है। उस ने अपने उद्देश्य के मुताबिक – सच्चाई, पवित्रता, प्रेम और आनंद के नियमों की सुरक्षा हेतु यह भूमिका अपनाई है और वह इसकी प्राप्ति करती ही है।
गायत्री माता, महिषासुरमर्दिनी चंडिका माता और अनसूया माता एक ही है। विभिन्न स्तर के कार्यों के अनुसार माता रूप धारण करती है। जैसा कि सद्गुरु श्री अनिरुद्ध कहते हैं, यह कार्य माता की कीर्तियों का गुणसंकीर्तन है। यह एक ‘ज्ञान-गंगा’ है, और ‘भक्ति-भागीरथी’ है। यह कार्य ज्ञान एवं भक्ति के पथ पर चलकर भगवंत या यहाँ पर माता चंडिका के बोध के प्रति संतोष प्रदान करता है।
यह चिरकाल तक मार्गदर्शन करनेवाला यह ग्रन्थ सद्गुरु श्री अनिरुद्ध जी द्वारा लिखे गए उन के अन्य कार्यों की तरह भक्तों को प्रेम और आधार देता है।


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हा ग्रंथ म्हणजे आई महिषासूरमर्दिनी चण्डिकेच्या वात्सल्याचाच आविष्कार. सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापूंद्वारा विरचित हा ग्रंथ तिच्या कार्याची, चरित्र व हेतूची ओळख तर करून देतोच पण ह्या आईच्या मायेची जाणीव करून देऊन, तिचा पदर धरून रहाणे शिकवतो. श्रद्धावानांना तिच्या छत्रछायेचे आश्वासन देतो.
ह्या आईचे प्रेम मानवी जीवनाला सामर्थ्य पुरवणारी शक्ती आहे. शुभ तत्त्वाला होकार आणि अहिताला वेळीच ओळखून नकार देण्याची शक्ती; भक्ती व नैतिकता ह्यांना दृढ करणारी शक्ती आणि साहजिकच तिच्या पुत्राचे -परमात्म्याचे प्रेम प्राप्त करण्याचा, त्याच्या जवळ जाण्याचा मार्ग. तिचे रूप सौम्य असो की उग‘, ती भक्तप्रेमापोटीच व कार्यहेतूप्रमाणे ते धारण करते व तिची सर्व रूपे शुभच असून भक्तकल्याणासाठीच असतात. अंतत: सत्याचा, शुभाचाच विजय ती घडवून आणते.
गायत्रीमाता, आई महिषासूरमर्दिनी चण्डिका व अनसूया माता ह्या तीन स्तरावर कार्य करत असल्या तरी मूलत: एकच असतात.
सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू म्हणतात की हा ग‘ंथ आदिमातेचे गुणसंकीर्तनही आहे, ही ज्ञानगंगा आहे आणि भक्तीभागिरथीही आहे. सर्व श्रद्धावानांसाठी सर्व काळासाठी सद्गुरु श्रीअनिरुद्धबापूंनी दिेलेले आदिमातेच्या प्रेमाचे, रक्षणाचे आणि आधाराचे आश्‍वासन म्हणजे ‘मातृवात्सल्यविंदानम्’